BA Semester-5 Paper-1 Sanskrit - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 संस्कृत - वैदिक वाङ्मय एवं भारतीय दर्शन - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 संस्कृत - वैदिक वाङ्मय एवं भारतीय दर्शन

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2801
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 संस्कृत - वैदिक वाङ्मय एवं भारतीय दर्शन - सरल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- देवता पर विस्तृत प्रकाश डालिए।

उत्तर -

देवता (देवता परिचय)

देवता - 'ऋग्वेद' के प्रत्येक सूक्त का अपना-अपना देवता है। जिसमें उस देवता की स्तुति की गई है या उस देवता से प्रार्थना की गई है। यास्क ने देवता शब्द का अर्थ किया है -

"देवो दानाद् द्योतनाद् दीपनाद् वा"।

अर्थात पदार्थों को देने वाले प्रकाशित होने वाले अथवा प्रकाशित करने वाले को देवता कहा गया है। यास्क ने देवताओं के तीन वर्ग किए हैं। पृथ्वी स्थानीय, द्युस्थानीय और अन्तरिक्ष स्थानीय। ऋग्वेद के इन देवताओं की कुल संख्या ३३ है।

अनेक विद्वान विभिन्न प्राकृतिक शक्तियों को देवता कहते हैं। कुछ विद्वानों ने अग्नि आदि देवतावाचक शब्दों का अर्थ परमेश्वर किया है तथा उसमें विभिन्न शक्तियों की कल्पना की है। अर्थात् ये देवतावाचक शब्द परमात्मा के विशेषण हैं। 'बृहदेवता' और 'निरुक्त' में एक ही महादेवता परमात्मा को माना गया है। 'ऋग्वेद' के कुछ प्रमुख देवताओं की निम्न विशेषताएँ हैं -

१. इन्द्र - इन्द्र 'ऋग्वेद' का सबसे महान् देवता है। इन्द्र की स्तुति २५६ सूक्तों में की गई है। अपने गुणों के कारण इन्द्र आर्यों का जातीय और राष्ट्रीय देवता बन गया तथा वह सभी देवताओं का राजा हुआ। ऋग्वेद की ऋचाओं के अनुसार इन्द्र के तीन विशेष गुण थे।

महान् कार्यों के करने की शक्ति, अतुल पराक्रम और असुरों को युद्ध में जीतना। प्रारम्भ में इन्द्र को विद्युत का देवता माना गया था। वह वर्षा को रोकने वाले दैत्यों का संहार करता था और अंधकार को दूर करता था। इन्द्र युद्ध का भी देवता है। वह आर्यों की रक्षा करता है और उनके निसर्ग-सिद्ध शत्रुओं का वध करता है। 'ऋग्वेद' में इन्द्र के सोमपान का वर्णन बहुत है। सोमपान से उसके अन्दर प्रचुर शक्ति का आविर्भाव होता है। तब वह बहुत बड़े-बड़े कार्य कर सकता है। उसके अन्दर वज्र को घुमाने और विद्युत को गिराने की शक्ति है। इन्द्र का प्रमुख शस्त्र वज्र था। त्वष्टा ने इन्द्र के लिए वज्र बनाया था। 'ऋग्वेद' के अनुसार इन्द्र पक्के मकानों में रहता था और हरे घोड़ों वाले सुनहरे रथ पर चढ़ता था। इस रथ को देवताओं के शिल्पी ऋभुजों ने बनाया था। द्यौ इन्द्र का पिता है। अग्नि और पूषा उसके भाई हैं और इन्द्राणी उसकी पत्नी है। मरुद्गण उसके सहायक हैं। शची नामक शक्ति का स्वामी होने के कारण इन्द्र को शचीपति, कर्मों की शक्ति रखने के कारण शतक्रतु एवं मरुतों की सहायता पाने के कारण उसको मरुत्वान् कहा गया है। इन्द्रं का प्रमुख शत्रु वृत्र है। वह वर्षा रोकने वाला है। इन्द्र सोमपान करके और भक्तों की सहायता पाकर वृत्र पर आक्रमण करता है। इस युद्ध में द्युलोक और पृथ्वी लोक कांप उठते हैं। पर्वत टूट जाते हैं और उनसे जल के झरने बहने लगते हैं। इन्द्र ने दैत्यों के पुरों को नष्ट करके पुरमित् उपाधि को धारण किया था। वह मेघरूपी पर्वतों में रहने वाले दैत्यों को मार देता है और वहाँ से जल को उसी प्रकार से मुक्त करता है, जैसे गायों को घेरे से मुक्त करता है।

इन्द्र बहुत पराक्रमी है। इन्द्र अपने उपासकों की रक्षा करता है। सहायता करता है और उनको धन-धान्य से पूर्ण करता है। इसलिए उसको मधवा कहा गया है। इन्द्र उषा के रथ को हिलाने वाला है। वह सूर्य के घोड़ों को रोक लेता है और सोम को जीत लेता है।

तब इन्द्र ने सरमा (देवशुनी) की दूती बनाकर भेजा था। सुदास के साथ इन्द्र के युद्ध ने इन्द्र कार्य करने में अत्यधिक शक्तिशाली, दुर्धर्ष, अथक लड़ने वाला, मनुष्यों की भलाई करने वाला, दान देने में उदार और प्रचुर सोमपान करने वाला है। यह संसार के सबसे बड़े राजा, विश्व के नियन्ता और धर्म एवं चरित्र के आदर्शों की रक्षा करने वाले वरुण की अपेक्षा भी महान् है। अत्यधिक शक्तिशाली होने के कारण उसको शक्र, शचीपति, शचीवान्, शतक्रतु आदि नामों से भी पुकारा गया था। वैदिक गाथाओं में इन्द्र और वृत्र प्रबल शत्रु बतलाए गए हैं। अन्य देवों में भी उसके कुछ गुण एवं रूप बताए गए हैं। देवताओं का रूप मूर्त और अमूर्त दोनों ही प्रकार का निर्दिष्ट है।

हिलब्रान्ट नामक पाश्चात्य विद्वान ने यह सिद्ध किया कि इन्द्र ही वृष्टि का देवता नहीं था। त्रित, पर्जन्य और इन्द्र इन तीन का वर्षा के साथ सम्बन्ध है। 'ऋग्वेद' के एक मन्त्र (१.५.२३) के अनुसार पहले त्रित ही जल का अवरोध करने वाले दैत्यों का संहार करता था, परन्तु बाद में इस कार्य को इन्द्र ने अपने हाथों में ले लिया।

अनेक वैदिक ऋचाओं में इन्द्र की आकृति और गुण मनुष्यों से भी मिलते हैं। वह एक सुदृढ़ और सुन्दर आर्य का रूप है। उसकी उत्पत्ति माता के पार्श्व भाग से हुई थी और उसने अपनी माता को विधवा बना दिया था। इन्द्र को कन्याओं के गीत सुनने का भी शौक था और वह अविवाहित कन्याओं की भलाई में रुचि लेता था। इन्द्र का वरुण के साथ बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध था। जब इन्द्र विजय करता हुआ आगे बढ़ता था, तो वरुण विजित प्रदेशों में नियमों और व्यवस्था की स्थापना करता था। वरुण का यह नियम था कि इन्द्र जीतता चले तथा वह अधिकार नियमों और व्यवस्था को बनावे। इन्द्र का बृहस्पति के साथ भी घनिष्ठ सम्बन्ध था।

ऋषि दयानन्द का कथन है कि इन्द्र के इस रूप की यह कल्पना धार्मिक जगत की आलंकारिक कल्पना है। इन्द्र प्राण है और वरुण इन्द्रियाँ हैं। वह असुरं रूपी आसुरी भावों को पराजित करता है। 'ऋग्वेद' में स्वर्ण, रजत आदि कान्तिमान् पदार्थों को भी कहा गया है। इसलिए निरुक्तकार कहते हैं। "या च का च बलकृतिः इन्द्रकर्मै तत्" अर्थात् जो बल और दीप्ति के कार्य हैं। वे सब इन्द्र के कार्य हैं। इन्द्र आर्यों का सबसे महान् देवता है। इसलिए 'ऋग्वेद' के लगभग चौथाई सूत्रों में इन्द्र की स्तुति का वर्णन है। उसकी प्रतिष्ठा आर्यों के जातीय और राष्ट्रीय देवताओं के रूप में हुई। मैक्डॉनल के अनुसार आर्यों के भारत में आने से पहले ही इन्द्र को राष्ट्रीय देवता के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त हो चुकी थी।

२. अग्नि - प्रभाव और विस्तार की दृष्टि से अग्नि को 'ऋग्वेद' में दूसरा स्थान प्राप्त है। २०० सूक्तों में अग्नि की स्तुति की गई है। वैदिक मंत्रों में अग्नि की तीन मुख्य विशेषताएँ बताई गई हैं।

१. नेतृत्व शक्ति से सम्पन्न होना।
२. यज्ञ की आहुतियों को ग्रहण करना।
३. तेज एवं प्रकाश का अधिष्ठाता होना।

अग्नि को 'जातवेदाः' कहा गया है, अर्थात् वह ज्ञान का आधार है और उपासना करने वालों का कल्याण करता है। अग्नि की उपासना बहुत प्राचीन काल से चली आ रही है। भारत, ईरान, यूनान में इसकी उपासना समान रूप से होती आ रही थी। मैक्डॉनल के अनुसार अग्नि नाम भारोपीय है। यह शब्द संस्कृत में 'अग', धातु और लैटिन 'ag' धातु से निष्पन्न हुआ है।

( संस्कृत अग्नि, लैटिन - ignis स्लौवानिक - ogni )।

'ऋग्वेद' के सूक्तों में अग्नि का विशेष सम्बन्ध यज्ञ की अग्नि से है। इसलिए इसको धृतपृष्ठ (घी की पीठ वाला), शोचिषकेश (ज्वालाओं के बालों वाला), रक्तश्मश्रु (लाल दाढ़ी वाला), तीक्ष्णदंष्ट्र (तेज दाँतों वाला) और रुक्मदन्त ( स्वर्णिम दाँतों वाला) कहा गया है।

सोमरस का पान करने के लिए अग्नि को बुलाया जाता है। अग्नि, सूर्य और बिजली के समान चमकता है। यह रात्रि में दीप्ति होता है और अंधकार को भगा देता है। इसका मार्ग काला है। जब वह जंगलों को जलाता है तो उनको उसी प्रकार से साफ कर देता है जिस प्रकार नाई दाढ़ी को। अग्नि को धूमकेतु (धुएँ की पताका वाला) भी कहा जाता है। इसका रथ सोने के समान चमकता है और दो या अधिक लाल घोड़ों द्वारा खींचा जाता है। अग्नि की उपमा अनेक वस्तुओं से दी गई हैं। यह महान् शब्द करते हुए बैल के समान है। इसके सींग भी है। जिनको यह तेज करता है। उत्पन्न हुआ अग्नि बाल वत्स के समान है। यह देवताओं के वाहन के समान है, जो यज्ञ को देवताओं तक ले जाता है। इसको आकाश में उड़ने वाले गरुड़ या श्येन के समान तथा जल में रहने वाले हंस के समान भी बताया गया है। लकड़ी या घी इसका भोजन है तथा पिघला मक्खन इसका पेय है। यह लकड़ी को उसी प्रकार आक्रान्त करता है जैसे कोई पक्षी विटंक (ऊँचा स्थान) पर बैठता है।

अग्नि देवताओं को रथ पर बैठाकर यज्ञभूमि में लाता है। वह द्यौस् का पुत्र है। अग्नि को जलों का पुत्र भी कहा गया है। इन्द्र और अग्नि जुड़वाँ भाई हैं। अग्नि सूखी अरणियों में उत्पन्न होता है जो उसकी माता है। सूखी समिधाओं से उत्पन्न होने वाला अग्नि उत्पन्न होते ही अपने माता-पिता का वध कर देता है। अग्नि को दस कन्याओं से उत्पन्न भी कहा गया है। ये दस कन्याएँ मनुष्य की दस अंगुलियाँ हैं। इसको सहस्पुत्र भी कहा गया है क्योंकि अग्नि को उत्पन्न करने के लिए मनुष्य को बल लगाना पड़ता है। प्रातः काल के समय में अग्नि का बाल रूप होता है।

अग्नि जल का गर्भ रूप है और जल से भी उत्पन्न होता है। वह आकाश में भी उत्पन्न हुआ था और मातरिश्वा (वायु) के द्वारा पृथ्वी पर आया। सूर्य भी अग्नि का ही एक रूप है। अग्नि के दो स्थान हैं द्युलोक और पृथ्वी लोक। मानवीय जीवन से अधिक सम्बन्ध रखने के कारण अग्नि को अतिथि और गृहपति भी कहा गया है। अग्नि के महत्व को बहुत अधिक बताया गया है और उसकी सार्वभौम शक्तियों की प्रशंसा की गई है। अग्नि तेज को प्रदान करता है और इन्द्र जल को। अग्नि को अन्य अनेक नामों से पुकारा गया है। यविष्ठय (सदा युवा रहने वाला), मेध्य (सदा पवित्र रहने वाला), कविशस्त (कवियों द्वारा प्रशंसित ) मुना ( घर का परम मित्र ) आदि। अग्नि का जन्म तीन स्थानों में कहा गया है -

काष्ठों में, जल, में और द्युलोक में। अग्नि को जल का पुत्र ( अपां नपात्) कहा गया है। अवेस्ता में अग्नि का नाम 'अपा नेपो' भी है। प्रातःकाल उषा के आगमन के साथ-साथ अग्नि का जन्म होता है और भूमि से उसी प्रकार उठता है जैसे वृक्षों से पक्षी। यह घी के द्वारा हव्यों को देवताओं तक पहुँचाता है। अतः हाव्यवाहन है सभी मनुष्य इसको चाहते हैं, अतः यह वैश्वानर है। सब इसकी स्तुति करते हैं। अतः यह नारायंस है कि यज्ञ का साधन है और भूतों, प्रेतों और राक्षसों को भगाने वाला है। यह जादू को दूर करता है। अग्नि आर्यों का प्रमुख देवता है और उसके बिना कोई धार्मिक एवं घर का कार्य पूरा नहीं हो सकता।

३. वरुण - इन्द्र और अग्नि के बाद देवताओं में वरुण का महत्व है। वरुण की स्तुति १२ सूक्तों में की गई है। 'ऋग्वेद' में वरुण का मुख्य रूप शासक का है तथा विश्व का राजा या सम्राट है। जो प्रशासन करता है तथा नियमों का संचालन करता है। वरुण जनता के पाप-पुण्य तथा सत्य-असत्य का हिसाब रखता हैं। वरुण के गुप्तचर विश्व भर घूमते रहते हैं। वरुण के पाशों की महिमा का वर्णन 'ऋग्वेद' में बहुत आता है। वह पाश पापियों को बाँध लेता है, परन्तु जो पश्चाताप करते हैं उनके प्रति वरुणं दयालु हो जाता है। पाप कर्म को देखता है। वह क्रुद्ध हो जाता है और नियम भंग करने वालों को कठोर दण्ड देता है, परन्तु जो लोग भूल से गलती करते हैं या नियम को भंग करने के बाद उसके प्रति आत्मसमर्पण कर देते हैं उनको वह क्षमा कर देता है। वरुण सूक्तों में स्थान-स्थान पर पापों को क्षमा करने की प्रार्थना की गई है।

'ऋग्वेद' के वरुण सूक्तों में वरुण का उज्जवल रूप दिया गया है। उसके मुख, आँखें, भुजाओं और पैरों का वर्णन किया गया है। वरुण के नेत्र सूर्य हैं। सूर्य के द्वारा वह सबको देखता है। वह दूरदर्शी और हजारों आँखों वाला है। वह कुशा पर बैठता है और सुनहरा चोगा पहनता है। उसका रथ सूर्य के समान दीप्तिमान् है। वरुण का एक दूत सुनहरे पंखों का है, जो वस्तुतः सूर्य है।

वरुण ब्राह्मण का सम्राट है। उसने स्वर्ग और पृथ्वी लोक को अपनी शक्ति से धारण किया हुआ है। वह जनता से शारीरिक और चरित्रगत नियमों का पालन कराता है। वरुण ने सूर्य रचना की, अग्नि और जल का निर्माण किया तथा पर्वतों पर सोमवल्ली को उत्पन्न किया। वरुण रात्रि और दिन का अधिष्ठाता है और जलों का नियमन करता है। वायु उसके आदेश में रहकर शब्द करती है, चन्द्रमा उसी के आदेश से प्रकाशित होता है, तारे वरुण का आदेश मानते हैं। नदियाँ उसकी आज्ञा से बहती हैं। समुद्र उसके नियंत्रण में रह कर बेला का उल्लंघन नहीं करता और उसके आदेश से बरसकर मेघ पृथ्वी को सींचते हैं। वह आकाश में उड़ने वाले पक्षियों की गति को पहचानता है। समुद्र में चलने वाले जहाजों को जानता है और कोई भी उसकी दृष्टि से ओझल नहीं है। वह अन्य सभी देवताओं से बढ़कर है। वह धृतव्रत है, अर्थात संसार को भी नियमों में चलाने का व्रत धारण कर रखा है। मैक्डॉनल के अनुसार वरुण का रूप चारों ओर फैले हुए आकाश से आच्छादित या आवृत करना। मैक्डॉनल एवं यास्क का यही मत है।

अनेक विद्वान वरुण का सम्बन्ध अवेस्ता के 'अहुरमज्द' से जोड़ते हैं। वरुण को वैदिक साहित्य में असुर भी कहा गया है, जिसका अर्थ है। असु = प्राण को, र = देने वाला अर्थात् प्राणियों में प्राण शक्ति को संचारित करने वाला वरुण ही है। इस दृष्टि से वेदों का वरुण अवेस्ता के अहुरमज्द का प्रतिनिधित्व कर सकता है।

४. विष्णु - ऋग्वेद के पहले मण्डल के १५४ सूक्त में विष्णु की स्तुति की गई है। 'सर्वानुक्रमणी' के अनुसार ६ ऋचाओं में विष्णु की स्तुति है। 'ऋग्वेद' में इस देवता का यद्यपि इतना महत्वपूर्ण वर्णन नहीं है। तथापि आगे चलकर विष्णु ने सभी देवताओं में सबसे प्रमुख स्थान प्राप्त किया है।

'विष्णु' - शब्द विपऌ व्याप्तौ धातु से निष्पन्न होता है। इस शब्द का अर्थ है - व्यापनशील होना। व्यापनशील होने से विष्णु शब्द सूर्य का वाचक होता है। इसका अर्थ है तीनों लोकों को प्रकाशित करने वाला। विष्णु के लिए त्रिविक्रम शब्द का भी प्रयोग हुआ है। इसका अर्थ है तीनों लोकों में अपनी किरणों को फैलाने वाला। विष्णु द्वारा तीन पगों में ब्रह्माण्ड को मापने के महत्वपूर्ण कार्य का वर्णन ऋग्वेद में किया गया है। इसी के आधार पर बलि दैत्य को विष्णु द्वारा छलने की पौराणिक कथा की कल्पना की गई होगी। इस कथा के अनुसार विष्णु ने वामन का रूप रखकर बलि दैत्य से तीन पग भूमि माँगी थी।

उसने एक पग में पृथ्वी को और दूसरे पग में अन्तरिक्ष को मापकर तीसरा पग बलि के सिर पर रखकर उसको पाताल लोक में पहुँचा दिया था। वस्तुतः त्रिविक्रम का अभिप्राय है। सूर्य रूप विष्णु पृथ्वी लोक, द्युलोक और आन्तरिक्ष लोक में अपनी किरणों का प्रसार करते हैं, तथा इनके प्रकाश से जरायुज, अण्डज और उभ्दिज तीनों प्रकार की सृष्टि अनुप्राणित होती है। विष्णु को उरुक्रम और उरुगाय भी कहा गया है। 'उरुक्रम' शब्द का अर्थ है.

महान् शक्तिशाली तथा 'उरुगाय' शब्द का अर्थ है। अनेक प्राणियों से स्तुति किया जाने वाला अथवा विशाल कीर्ति वाला अथवा अनेक देशों में जाने वाला अथवा शत्रुओं को रुला देने वाला। उरुगाय शब्द का प्रयोग 'ऋग्वेद' में १२१ बार हुआ है।

विष्णु को इन्द्र का छोटा भाई भी कहा गया है। विष्णु शब्द का अर्थ क्रियाशील भी है। यह सभी देवताओं में सबसे अधिक क्रियाशील है तथा उनकी सहायता करता है। वृत्र के वध के समय विष्णु ने इन्द्र का साथ दिया था तथा वहाँ उसका मरुतों से भी सम्पर्क हुआ।

विष्णु को परमपद का अधिष्ठाता कहा गया है। उसका परमपद उच्च लोक है, जहाँ मधु का उत्स है और बड़े सींगों वाली चञ्चल गाएँ रहती हैं। ये गाएँ सूर्य की किरणें भी हो सकती हैं। पुराणों के अनुसार विष्णुलोक को गोलोक कहा गया है। विष्णु के भक्त इस लोक को पहुँचते हैं और उत्तम पदार्थों का भोग करते हैं। 'वृहदारण्यक उपनिषद् के अनुसार विष्णु वह शक्ति है जो इन्द्रियों और आत्मा को उनके कर्म अनुसार नियुक्त करती है। इस

५. सविता - सविता देवता का सूर्य देवता से बहुत अधिक साम्य है। कभी-कभी इन दोनों देवताओं को एक ही मान लिया जाता है। तथापि 'ऋग्वेद' में सविता का वर्णन सूर्य से पृथक् किया गया है। 'सविता' शब्द की निष्पत्ति 'सू' धातु से हुई है, इसका अर्थ है - उत्पन्न करना, गति देना, प्रेरणा देना या प्राण देना। सविता के कार्य भी इन्हीं अर्थों के अनुरूप हैं। सविता का रूप आलोकमय तथा स्वर्णिम है। उनके नेत्र, हाथ और जीभ सभी स्वर्णिम हैं। सविता का वाहन रथ स्वर्ण की आभा वाला है और रथ के धुरे सोने की तरह चमकीले हैं। उसके रथ पर सुनहरी यष्टियाँ हैं तथा यह मोतियों से सज्जित है। इस रथ को दो या अधिक लाल या श्वेत घोड़े खींचते हैं। इस रथ पर बैठकर सविता सारे विश्व में घूमता है। सविता दिन और रात का स्वामी है। वह सुवर्णयम भुजाओं के समान किरणों से आकाश को व्याप्त करता हुआ आकाश में उदित होता है। प्रदोष को दूर भगाता है।

सविता यजमानों की रक्षा करता है, मनुष्यों को पापों से रहित करता है और राक्षसों तथा यातुधानों को दूर भगाता है। वह नियमों का सम्यक् पालन कराता है। जल और वायु उसके आश्रित हैं। अन्य देवता उसके नेतृत्व को स्वीकार करते हैं। कोई भी उसकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकता। पवित्र गायत्री मंत्र में सविता की महत्ता गायी गई है?

६. उषस् - उषा के वर्णनों में 'ऋग्वेद' के कवियों ने अपनी अलौकिक प्रतिभा को अभिव्यञ्जित किया है। 'ऋग्वेद' के २० सूक्तों में उषा की स्तुति गाई गई है। उषा सौन्दर्य की देवी है। उसके उदय होने पर आकाश का कोना-कोना जगमगा उठता है। विश्व हर्ष के अतिरेक से भर जाता है। उषा सूर्य की प्रेयसी है। वह एक नर्तकी के समान सजी हुई और चमकीले वस्त्रों को पहनी हुई पूर्व दिशा में अपना आकर्षक रूप प्रकट करती है। सूर्य एक रसिक युवक के समान अनुगमन करता है। उषा प्रकाश में स्नान करती हुई रात्रि रूपी नायिका की काली पोशाक को उतार कर फेंक देती है। वह युवती है और प्रतिदिन उत्पन्न होती है तथा सदा नयी बनी रहती है। उषा को 'पुराणी युवतीः' कहा गया है अर्थात् अत्यन्त प्राचीन होती हुई भी वह नयी नवेली युवती के समान सुन्दर दिखायी देती है। विभिन्न रङ्गों में चमकती हुई उषा मरणशील मनुष्यों को उद्बोधित करती है। उसके उदित होते ही आकाश का कोना-कोना जगमगा जाता है तथा स्वर्ग का द्वार खुल जाता है। उषा प्रत्येक प्राणी को अपने कार्य में प्रवृत्त कर देती है। चिड़ियाँ आकाश में उड़ने लगती हैं और मनुष्य अपने कार्यों में लग जाते हैं। नियमों का पालन कराने में वह सदा तत्पर है। देवताओं के उपासकों को वह प्रातःकाल जगा देती है। उनको भजन में प्रवृत्त कराती है तथा देवताओं को सोमपान में लगाती है। उषा की किरणें पशुओं के झुण्ड के समान निकलती हैं और दुःस्वप्नों को, हानिकारक भूत-प्रेतों को एवं पिशाचों को भगा देती है। उषा का रथ चमकदार है और उसमें लाल रंग के घोड़े जुड़े हुए हैं। ये घोड़े रथ को खींचते हैं। सूर्य की प्रातःकालीन किरणें ही ये घोड़े हैं। उषा का सूर्य के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। वह सूर्य की प्रेयसी है तथा सूर्य एक रसिक युवक के समान उसके पीछे-पीछे जाता है। कहीं-कहीं सूर्य को उषा का पुत्र भी बताया गया है। उस कान्तिमान् पुत्र को गोद में उठाकर वह उदित होती है। कुछ स्थानों पर उषा को रात्रि की छोटी बहन भी कहा गया है। आकाश में उत्पन्न होने के कारण उषा को स्वर्ग की पुत्री भी कहा गया है। उषा अपने भक्तों को धन, पुत्र, यश आदि प्रदान करती है। इसलिए इसको मघोनी भी कहा गया है। उषा शब्द की निष्पत्ति 'वस्' धातु से हुई है। जिसका अर्थ है चमकना। उषा में ज्योतिषमान् पदार्थ निवास करते हैं। उषा वैदिक ऋषियों की प्रमुख देवी रही। यज्ञों में उषा का विशेष स्थान है। वह सदाचार सम्बन्धी त्रुटियों को पूरा करती है और ऋत का वितरण करती है। इसलिए उषा को ऋतावारी भी कहा जाता है। उषा को वर्ष की स्त्री तथा ऋतुओं की स्वामिनी भी बताया रेवती गया है। वैदिक ऋचाओं में उषा की विशेष महिमा गाई गई है। मघोनी, विश्ववाराः, प्रचेताः, सुभागः, आदि उसके विशेषण हैं। वह प्रकाश के पुञ्ज का उसी प्रकार आवर्तन करती है, जैसे कोई पहिए को लुढ़काता है।

'शतपथ ब्राह्मण' की कथा के अनुसार काले रंङ्ग के एक दैत्य ने उषा को गुफा में बन्द कर दिया था। देवताओं के बहुत खोजने पर भी उसका पता न चला। अन्त में सूर्य ने उषा का उद्धार किया। इसका अभिप्राय है कि काल रात्रि रूपी राक्षस ने उषा को बन्द कर लिया था और इन्द्र रूपी सूर्य ने उसको बन्धन से मुक्त किया।

७. सोम - सोम ऋग्वेद का एक प्रमुख देवता है। इसकी स्तुति १२० सूक्तों में की गई है। ऋग्वेद का सम्पूर्ण नवम मण्डल सोम की स्तुति से भरा पड़ा है। सूक्तों की संख्या के आधार पर अग्नि के बाद सोम का स्थान आता है। ऋग्वेद के वर्णनों के अनुसार सोम एक वनस्पति होती थी, जो मुञ्जवान् पर्वत पर उत्पन्न होती थी। इसका रस अत्यधिक शक्तिप्रद एवं स्फूर्तिदायक था। विशिष्ट यज्ञों के अवसरों पर देवताओं की अर्चना करके इसका पान किया जाता था। इन्द्र को सोम रस के पान करने का बहुत शौक था। सोम रस को विशिष्ट विधियों द्वारा तैयार किया जाता था।

८. वाक् - 'ऋग्वेद' में वाक् की वाणी की देवी के रूप में स्तुति की गई है। इसमें वे सभी विशेषताएँ हैं जो वाणी में होती हैं। वाक् का वर्णन ब्रह्म से उत्पन्न हुई एक महान् शक्ति के रूप में किया गया है। सर्वानुक्रमणी के अनुसार वाक् देवी ऋम्भण ऋषि की पुत्री थी। वाक् ब्रह्म का ही एक रूप है। वाक् देवी देवताओं को प्रेरणा देती है और उनकी कर्त्तव्य पालन में सहायता करती है। वह अपने भक्तों को अपने तेज से ऋषि, ब्राह्मण और विद्वान् बना देती है। वाणी की महत्ता को प्राप्त करने के लिए, वाक्शक्ति का विकास करने के लिए वाक्सूक्त का पाठ करना चाहिए। इस सूक्त में वाणी के प्रत्यक्ष और परोक्ष रूपों का वर्णन किया गया है।

९. रुद्र - 'ऋग्वेद' में रुद्र देवता का बहुत विस्तृत वर्णन नहीं है। यद्यपि रुद्र का वर्णन कुछ ही ऋचाओं में ही है तथापि इस देवता को अत्यधिक शक्तिशाली एवं भयानक रूप चित्रित किया गया है। रुद्र के बाह्य रूप का वर्णन मनोहारी है। रुद्र के सुन्दर होंठ हैं। जुल्फों वाले केश हैं। भूरा रंग है और आकृति मसृण एवं कान्तिमान् है। वह सोने के आभूषणों को धारण करता है। और गले में चमकदार निष्क (हार) को पहनता है। उसके पास विशेष आयुध है। वह वज्र को धारण करता है तथा बिजली की सी चमक वाले बाणों को अपने पास रखता है। 'ऋग्वेद' में रुद्र को मरुतों का पिता एवं स्वामी कहा गया है। तुल्य उनको पृश्नि नाम की गौ के थनों से उत्पन्न किया था। जगत् का विनाश करने में रुद्र शूकर यह लाल रंग का स्वर्ग का शूकर है और उसको 'अरुष' नाम दिया गया है। वह शूकर विशालकाय है। वह. संसार का स्वामी है और पिता है। वह उदर है, आशुतोष है और शिव है। वह वीभत्स है। रुद्र को देवों का अधिदेव कहा गया है और प्रार्थना की गई है कि वह हमें न मारे और न हानि पहुँचाएं। रुद्र केवल भयानक और दण्ड देने वाला ही नहीं है। अपितु कष्टों से बचाने वाला भी है। वह दया का दान भी करता है। रुद्र को स्वास्थ्य का देवता भी कहा गया है। उनके पास स्वास्थ्य प्रदान करने की विशेष शक्तियाँ हैं तथा रोगों को दूर करने वाली हजारों औषधियाँ हैं। औषधियों के लिए जलाष और जलाषभेषज शब्दों के प्रयोग वैदिक) मंत्रों में आते हैं। 'ऋग्वेद' में रुद्र की भौतिक शक्तियों के सम्बन्ध में तो विशेष नहीं कहा गया, परन्तु प्राकृतिक वर्णनों में उसको आँधी उठाने वाला समझा जा सकता है। उसका दुःखद रूप नर- पशु वृक्ष आदि को ध्वंस करने वाली बिजली के समान दिखाई देता है। उसका रूप एक ओर जहाँ कठोर है, वहीं दूसरी ओर कोमल भी है। 'ऋग्वेद' में रुद्र के सम्बन्ध में यद्यपि अधिक विस्तृत वर्णन नहीं है और उसको इन्द्र आदि के समान अधिक महत्व नहीं मिला, तथापि उत्तरकाल में वह आर्यों के प्रमुखतम देवता के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। 'यजुर्वेद के युग में ही उसको यह प्रतिष्ठा मिलनी प्रारम्भ हो गई थी। 'रुद्राष्टाध्यायी' और 'यजुर्वेद' में रुद्र को शत्रुओं का प्रतिकार करने में अनुपम सामर्थ्य से युक्त कहा गया है। एक ओर जहाँ शत्रुओं और द्रोहियों को रुलाने वाला है। वहीं दूसरी ओर शान्ति का अग्रदूत भी है।

१०. अश्विन् - ये देवता सदा युगल रूप में उपस्थित होते हैं। 'अश्विनौ' इस द्विवचन में ही सदा इनका प्रयोग किया जाता है। इन्द्र, अग्नि और सोम के अनन्तर इनका महत्व सबसे अधिक है। इनकी स्तुति ५० सूक्तों में की गई है। ये देवता प्रकाश, प्राकृतिक आनन्द और कामपूर्ति के साधनों को प्रस्तुत प्रस्तुत करते हैं। अश्विनौ देवता दो अलग-अलग भाई हैं। कहीं-कहीं उनको जुड़वाँ भाई भी बताया गया है। वे युवा हैं, प्राचीन हैं, चमकदार हैं और कान्तिमान् हैं। सुनहरी चमक, सौन्दर्य और कमलों की मालाओं से वे सदा विभूषित रहते हैं। उनका मार्ग वर्णमय (हिरण्यवर्तनी) है। उनके अंग दृढ़ हैं। स्फूर्तिशाली है और वे गरुड़ के समान वेगशाली हैं। उनमें अदृश्य शक्तियाँ हैं और उनकी बुद्धि असीम है। उनको दस्त्र (आश्चर्यपूर्ण) तथा नासत्य (सत्य से पूर्ण) भी कहा गया है। अश्विनी देवताओं को तथा शहद से बहुत प्रेम है। उन्होंने चमड़े की १०० गोषियाँ भरकर शहद इकट्ठा किया था शहद के १०० घड़े भरकर रखे थे। उनका रस शहद के रंग का है। शहद के अकुश से हांका जाता है। वे मधुमक्खियों को शहद प्रदान करते हैं। रथ की चमक सूर्य के समान है और उसके अवयव सोने के बने हैं। इस रथ में तीन पहिए हैं। उनका वेग पवन से भी अधिक है। इस रथ को ऋभु नामक देवताओं ने बनाया था। कभी-कभी इस रथ में भैंसे और गधे भी जोते जाते हैं।

यह रथ पाँच लोकों अन्तरिक्ष, भू, द्यु, सूर्य और चन्द्र लोकों को पार करता है, आकाश के चारों ओर चलता है। द्यु लोक तथा गतियों का वर्णन ऋचाओं में किया गया है। अश्विनी देवताओं के निवास निश्चित नहीं हैं। वे कभी वायु-लोक में, कभी स्वर्ग लोक में और कभी समुद्र में निवास करते हैं। उषा इनको जगाती है और वे उषा के पीछे-पीछे जाते हैं। रथ में बैठकर ये पृथ्वी लोक में आते हैं। अश्विनी देवता स्वर्ग के पुत्र हैं। उनको विवस्वान् का तथा त्वष्टा की पुत्री सरण्यू का पुत्र भी कहा गया है। सरण्यू का शब्द है, सूर्य एवं उषा का अर्थ उदय काल भी है। अश्विनी देवताओं को पूषा का पुत्र भी बताया गया है। उषा को उनकी बहन बताया गया है। 'ऋग्वेद में सूर्य की पुत्री सूर्या के विवाह के प्रसंग में इन देवताओं का वर्णन आया है। सूर्या के विवाह के लिए उन्होंने सोम का वरण किया था और सूर्या को रथ पर आरूढ़ करा कर पति के घर ले गए थे। वे अपने उपासकों तथा भक्तों की रक्षा करते हैं। अश्विनी देवता कुशल चिकित्सक हैं तथा स्वर्ग के वैद्य हैं। शारीरिक व्याधियों को दूर करने, नवयौवन प्रदान करने और नए अंङ्गों की रचना करने में समर्थ हैं। उन्होंने भुज्यु नामक राजा को समुद्र में डूबने से बचाया था। अश्विनी देवताओं के लिए निचेतास, मधुयुवा, स्यूभगभस्ति आदि विशेषणों का प्रयोग किया गया है। मनुष्यों के प्रति इनका व्यवहार दयापूर्ण है। जो दान दिया जाता है, उसके ये ही देवता हैं।

यास्क ने 'अश्विन्' शब्द के अनेक अर्थ किए हैं तथा इनको न सुलझने वाली पहेली कहा है। अश्विन् शब्द का अर्थ महाकाल है। जबकि झुटपुटा प्रकाश लेता है। अतः सायंकाल और प्रातःकाल दिखाई देने वाले तारों को अश्विन् कहा गया है। इस प्रकार अश्विनी दो तारे हैं जसमें एक प्रातः काल तथा दूसरा सायंकाल उदित होता है। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार अश्विनी नक्षत्रों का एक समूह है, जो शुभ और अशुभ का द्रष्टा है। शूद्र जाति के रासभ इनके रथ को खींचते हैं। इनकी प्रतिष्ठा और सामाजिक मर्यादा इन्द्र से भी अधिक है। हठयोग के अनुसार दाएँ, बाएँ नासापुटों को अश्विनौ कहते हैं। इनका ही दूसरा नाम इडा और पिङ्गला है। शीघ्रगमन करने के कारण वायु को भी अश्विन् कहा जाता है। रासभों से वहन होना इनके यौगिक अर्थ को स्पष्ट करता है। भ = आकाश, रास = शब्दयुक्त होना। जब तीव्र हवा चलती है तो आकाश में शब्द भर जाता है।

११. विश्वेदेवा - 'ऋग्वेद' में विश्वेदेवा देवताओं का महत्वपूर्ण स्थान है। लगभग ४० सूक्तों में विश्वेदेवा देवताओं का आह्वान किया गया है। 'ऋग्वेद' में ३३ देवता प्रधान हैं तथा इनको तीन वर्गों में वर्गीकृत कर दिया गया है। द्युस्थानीय, पृथ्वी, स्थानीय और अन्तरिक्ष स्थानीय। विश्वेदेवा में इन सभी का ग्रहण किया जाता है। विश्वेदेवा की दृष्टि से 'ऋग्वेद' का ८.२१ सूक्त अधिक महत्वपूर्ण है। इस सूक्त में प्रत्येक मंत्र में एक देवता का वर्णन है जो अनेक दिव्य गुणों से युक्त है। विश्वेदेवा देवसमूह में इन्द्रा, अग्नि, सोम, त्वष्टा, रुद्र, पूषन्, विष्णु, अश्विनी, मित्रावरुण और अङ्गिरस का अधिक वर्णन आता है। विश्वेदेवा मानव का कल्याण करते हैं। सबके सो जाने पर वे हमारी रक्षा करते हैं तथा सुख-दुख के क्रम की व्यवस्था करते हैं। सूर्य का नियमन और रात्रि का आगमन विश्वेदेवा के अधीन है। विश्वेदेवा देवताओं का समूह और इसमें अनाहूत देवताओं का भी समावेश हो जाता है।

१२. पुरुष - सृष्टि उत्पत्ति के सम्बन्ध में 'ऋग्वेद' में ६-७ सूक्त हैं। इनमें पुरुष सूक्त बहुत प्रसिद्ध है। इस सूक्त में सृष्टि के पदार्थों की रचना का वर्णन किया गया है। सृष्टि की मूल रूप से रचना करने वाला पुरुष है। उसके विभिन्न अंगों से सृष्टि के विभिन्न अंग उत्पन्न होते हैं। सृष्टि की रचना एक यज्ञ का रूप है। उसमें पुरुष की बलि दी जाती है। पुरुष सूक्त में विराट् पुरुष के स्वरूप का वर्णन किया गया है। 'भगवद्गीता' के ११ वें अध्याय के विराट् पुरुष का इसी सूक्त का प्रभाव पड़ा है। सांख्य दर्शन में पुरुष बहुलता को भी सम्भवतः यहीं से लिया होगा। कुछ विद्वानों का मत है कि इस सूक्त की रचना 'ऋग्वेद' के अन्य सूक्तों की अपेक्षा कुछ अर्वाचीन हैं क्योंकि इसमें एक परम पुरुष की उपासना की गई है तथा एक देवतावाद का प्रतिपादन किया गया है। यह विराट् पुरुष हजारों अर्थात् असंख्य सिरों, हाथों और पैरों वाला है और उसने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को व्याप्त कर रखा है। वह भूत और भव्य का स्वामी है। उस पुरुष से ही चारों वर्ण - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र उत्पन्न हुए। उससे ही वसन्त आदि ऋतुएँ उत्पन्न हुईं और ऋक्, यजुष तथा साम उत्पन्न हुए। चारों वर्ण इस प्रकार के चार अंग-मुख, बाहु, उरु और पाद है। सूर्य चक्षु है, वायु प्राण है, अग्नि मुख है और मन चन्द्रमा है। स्वर्ग या नरक की प्राप्ति इस पुरुष रूप यज्ञ द्वारा होती है। पुरुष सूक्त के अनुसार भौतिक जगत् वृक्ष, पशु, तृण, सूर्य, चन्द्र आदि की सृष्टि मनुष्य की सृष्टि से पहले हुई। इस पुरुष ने एक चरण से पृथ्वी लोक की रचना की और तीन चरणों को ऊपर रखा। ऋषियों द्वारा इस पुरुष यज्ञ का विस्तार हुआ था। इस सूक्त का रहस्य यही है कि आत्मज्ञान के द्वारा जीवन को सफल बनाना चाहिए।

१३. हिरण्यगर्भ - 'वेदों में पुरुष से हिरण्यगर्भ की उत्पत्ति प्रदर्शित की गई है। पुरुष से जो विराट् उत्पन्न होता है वही हिरण्यगर्भ है। हिरण्यगर्भ को प्रजापति भी कहा गया है। पुराणों में भी इसी को ब्रह्मा कहा गया है। हिरण्यगर्भ और प्रजापति कहीं तो पर्यायवाची हैं। कहीं हिरण्यगर्भ को प्रजापति से श्रेष्ठ बताया गया है तथा कहीं प्रजापति को हिरण्यगर्भ से श्रेष्ठ बताया गया है। वस्तुतः ये दोनों एक ही हैं। हिरण्यगर्भ सूक्त से इन दोनों की स्तुति की गयी है। सृष्टि के आदि में सबसे पहले हिरण्यगर्भ की उत्पत्ति हुई थी। वह उत्पन्न हुई सम्पूर्ण सृष्टि का स्वामी था। उसने इस पृथ्वी और द्युलोक को धारण किया हुआ था। वह अपने तेज से अंतरिक्ष में टिका हुआ था। देवलोक और पृथ्वी लोक के प्राणी अपनी रक्षा के लिए उसी को पुकारते हैं। प्राण-शक्ति को और बल देने वाला वही है। हिरण्यगर्भ पर्वतों की ऊँचाई की ओर समुद्र की गहराई को जानता है। द्युलोक उसका सिर है तथा पृथ्वी पैर है। हिरण्यगर्भ देवता कर्मों के फलों को प्रदान करने वाला है। इसी हिरण्यगर्भ के आधार पर वेदान्त दर्शन के "सर्व खल्विदं ब्रह्म सूत्र" का विकास हुआ था। हिरण्यगर्भ सूक्त में १० मंत्र हैं। ९ मंत्रों का अन्तिम चरण कस्मै देवाय हविषा विधेम है तथा दसवें मंत्र में इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है।

१४. बृहस्पति - 'ऋग्वेद के ग्यारह सूक्तों में बृहस्पति देवता की उपासना की गई है। इसके अतिरिक्त दो सूक्तों में उसकी उपासना इन्द्र के साथ है। इस देवता को दो नामों बृहस्पति तथा ब्रह्मणस्पति नामों से पुकारा गया है। बृहस्पति और ब्रह्मण्डस्पति शब्दों का अर्थ है। बृहतां, ब्रह्मणसां वा पतिः बृहस्पतिः या ब्रह्मणस्पतिः अर्थात् जो स्तोताओं द्वारा उच्चारण किए जाते हुए महान् स्तोत्रों का स्वामी है, उनको सुनकर स्तोताओं को उचित फल प्रदान करता है। वह देवता बृहस्पति या ब्रह्मणस्पति है। बृहस्पति देवता का इन्द्र आदि देवताओं के समान एक सतत् स्वरूप दृष्टिगोचर नहीं होता। एक ओर जहाँ यह देवता युद्ध करता है। दुष्टों, असुरों और राक्षसों को दण्डित करता है। उन पर विजय प्राप्त करता है। वहीं दूसरी ओर पुरोहित का कार्य भी करता है और स्तोत्रों की रचना करने वाला है। पीटर्सन का विचार है कि बृहस्पति देवता में ब्राह्मण और ब्राह्मणस्पति दोनों चरित्रगत विशेषताएँ हैं। बृहस्पति देवता का वर्ण स्वर्णिम है, उसके तीक्ष्ण श्रृंग हैं और पृष्ठ कृष्ण वर्ण का है। इस देवता के हाथ में धनुष-बाण और परशु रहते हैं। इसके घोड़ों का रंग लाल है। यह देवता मंत्रों का प्रेरक है। बृहस्पति को वज्र धारण करने वाला ( वाज्त्रिन्) भी कहा गया है। वह युद्धों में इन्द्र की सहायता करता है परन्तु वह इन्द्र की अपेक्षा अधिक शान्त, स्थिर, दृढ़ तथा प्रतिरोधी है। उसने बल के प्रतिरोध को तोड़ दिया। ऋक्वन् गण उसकी स्तुति करते हैं तथा वह 'गणपति' कहलाता है। बृहस्पति के बल, महत्व और सौन्दर्य के सामने पर्वत भी झुक गया था। उसने गौओं के लिए मार्ग को मुक्त कर दिया था। बृहस्पति ने मनुष्यों के लिए यज्ञ का विधान किया था। बृहस्पति के बिना कोई भी यज्ञ पूरा नहीं हो सकता। संभवतः इसी देवता की कल्पना के द्वारा ब्राह्मण पुरोहितों को यज्ञीय प्रक्रिया में एकाधिकार प्राप्त हुआ होगा। अपनी स्तुति करने वालों के प्रति बृहस्पति बहुत अधिक दयालु और कृपालु है। वह उनका गोपाः और 'सुगोपाः' है। अपने स्तोताओं को वह उत्तम मार्गों से ( सुनीतिभिः) ले जाता है और उनके लिए मार्गों का निर्माण करता है। पथिकृत। बृहस्पति मनुष्यों को उत्तम वय और सौभाग्य प्रदान करता है। उनके ऋणों को उतारता है। (ऋणया) और उनके द्रोहियों का विनाश करता है। (द्रहो हन्ता )। उत्तम स्तुतियों द्वारा बृहस्पति की कृपा प्राप्त की जा सकती (सुप्रशंसामतिभिस्तारिषीमहि )। बृहस्पति सब देवताओं के जन्मों को उत्पन्न करता है। (बृहस्पति से कर्मार इबाधाममत्)। हिन्दू दर्शनशास्त्र में उत्तरवर्ती काल में त्रिदेवों का ब्रह्मन, विष्णु और महेश का आविर्भाव हुआ था। बृहस्पति या ब्रह्मणस्पति सारी सृष्टि की रचना करने वाला था। जो इन त्रिदेवी में ब्रह्म का प्रतिनिधि था। बाद में उनको ब्रह्मन स्वामी या उसको उत्पन्न करने वाला भी कहा गया। यह ब्रह्न उत्तरवर्ती भारतीय धर्म और दर्शन में भगवान् ईश्वर कहा जाने लगा। वेदान्त दर्शन में इसका परम ब्रह्म के रूप में स्मरण किया गया। पुराणों में बृहस्पति को देवताओं का गुरु कहा गया है। ऋग्वेद ७.९ में इसी बृहस्पति को महत्तम देव कहा गया है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- वेद के ब्राह्मणों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  2. प्रश्न- ऋग्वेद के वर्ण्य विषय का विवेचन कीजिए।
  3. प्रश्न- किसी एक उपनिषद का सारांश लिखिए।
  4. प्रश्न- ब्राह्मण साहित्य का परिचय देते हुए, ब्राह्मणों के प्रतिपाद्य विषय का विवेचन कीजिए।
  5. प्रश्न- 'वेदाङ्ग' पर एक निबन्ध लिखिए।
  6. प्रश्न- शतपथ ब्राह्मण पर एक निबन्ध लिखिए।
  7. प्रश्न- उपनिषद् से क्या अभिप्राय है? प्रमुख उपनिषदों का संक्षेप में विवेचन कीजिए।
  8. प्रश्न- संहिता पर प्रकाश डालिए।
  9. प्रश्न- वेद से क्या अभिप्राय है? विवेचन कीजिए।
  10. प्रश्न- उपनिषदों के महत्व पर प्रकाश डालिए।
  11. प्रश्न- ऋक् के अर्थ को बताते हुए ऋक्वेद का विभाजन कीजिए।
  12. प्रश्न- ऋग्वेद का महत्व समझाइए।
  13. प्रश्न- शतपथ ब्राह्मण के आधार पर 'वाङ्मनस् आख्यान् का महत्व प्रतिपादित कीजिए।
  14. प्रश्न- उपनिषद् का अर्थ बताते हुए उसका दार्शनिक विवेचन कीजिए।
  15. प्रश्न- आरण्यक ग्रन्थों पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  16. प्रश्न- ब्राह्मण-ग्रन्थ का अति संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  17. प्रश्न- आरण्यक का सामान्य परिचय दीजिए।
  18. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए।
  19. प्रश्न- देवता पर विस्तृत प्रकाश डालिए।
  20. प्रश्न- निम्नलिखित सूक्तों में से किसी एक सूक्त के देवता, ऋषि एवं स्वरूप बताइए- (क) विश्वेदेवा सूक्त, (ग) इन्द्र सूक्त, (ख) विष्णु सूक्त, (घ) हिरण्यगर्भ सूक्त।
  21. प्रश्न- हिरण्यगर्भ सूक्त में स्वीकृत परमसत्ता के महत्व को स्थापित कीजिए
  22. प्रश्न- पुरुष सूक्त और हिरण्यगर्भ सूक्त के दार्शनिक तत्व की तुलना कीजिए।
  23. प्रश्न- वैदिक पदों का वर्णन कीजिए।
  24. प्रश्न- 'वाक् सूक्त शिवसंकल्प सूक्त' पृथ्वीसूक्त एवं हिरण्य गर्भ सूक्त की 'तात्त्विक' विवेचना कीजिए।
  25. प्रश्न- हिरण्यगर्भ सूक्त की विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
  26. प्रश्न- हिरण्यगर्भ सूक्त में प्रयुक्त "कस्मै देवाय हविषा विधेम से क्या तात्पर्य है?
  27. प्रश्न- वाक् सूक्त का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
  28. प्रश्न- वाक् सूक्त अथवा पृथ्वी सूक्त का प्रतिपाद्य विषय स्पष्ट कीजिए।
  29. प्रश्न- वाक् सूक्त में वर्णित् वाक् के कार्यों का उल्लेख कीजिए।
  30. प्रश्न- वाक् सूक्त किस वेद से सम्बन्ध रखता है?
  31. प्रश्न- पुरुष सूक्त में किसका वर्णन है?
  32. प्रश्न- वाक्सूक्त के आधार पर वाक् देवी का स्वरूप निर्धारित करते हुए उसकी महत्ता का प्रतिपादन कीजिए।
  33. प्रश्न- पुरुष सूक्त का वर्ण्य विषय लिखिए।
  34. प्रश्न- पुरुष सूक्त का ऋषि और देवता का नाम लिखिए।
  35. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। शिवसंकल्प सूक्त
  36. प्रश्न- 'शिवसंकल्प सूक्त' किस वेद से संकलित हैं।
  37. प्रश्न- मन की शक्ति का निरूपण 'शिवसंकल्प सूक्त' के आलोक में कीजिए।
  38. प्रश्न- शिवसंकल्प सूक्त में पठित मन्त्रों की संख्या बताकर देवता का भी नाम बताइए।
  39. प्रश्न- निम्नलिखित मन्त्र में देवता तथा छन्द लिखिए।
  40. प्रश्न- यजुर्वेद में कितने अध्याय हैं?
  41. प्रश्न- शिवसंकल्प सूक्त के देवता तथा ऋषि लिखिए।
  42. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। पृथ्वी सूक्त, विष्णु सूक्त एवं सामंनस्य सूक्त
  43. प्रश्न- पृथ्वी सूक्त में वर्णित पृथ्वी की उपकारिणी एवं दानशीला प्रवृत्ति का वर्णन कीजिए।
  44. प्रश्न- पृथ्वी की उत्पत्ति एवं उसके प्राकृतिक रूप का वर्णन पृथ्वी सूक्त के आधार पर कीजिए।
  45. प्रश्न- पृथ्वी सूक्त किस वेद से सम्बन्ध रखता है?
  46. प्रश्न- विष्णु के स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  47. प्रश्न- विष्णु सूक्त का सार लिखिये।
  48. प्रश्न- सामनस्यम् पर टिप्पणी लिखिए।
  49. प्रश्न- सामनस्य सूक्त पर प्रकाश डालिए।
  50. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। ईशावास्योपनिषद्
  51. प्रश्न- ईश उपनिषद् का सिद्धान्त बताते हुए इसका मूल्यांकन कीजिए।
  52. प्रश्न- 'ईशावास्योपनिषद्' के अनुसार सम्भूति और विनाश का अन्तर स्पष्ट कीजिए तथा विद्या अविद्या का परिचय दीजिए।
  53. प्रश्न- वैदिक वाङ्मय में उपनिषदों का महत्व वर्णित कीजिए।
  54. प्रश्न- ईशावास्योपनिषद् के प्रथम मन्त्र का भावार्थ स्पष्ट कीजिए।
  55. प्रश्न- ईशावास्योपनिषद् के अनुसार सौ वर्षों तक जीने की इच्छा करने का मार्ग क्या है।
  56. प्रश्न- असुरों के प्रसिद्ध लोकों के विषय में प्रकाश डालिए।
  57. प्रश्न- परमेश्वर के विषय में ईशावास्योपनिषद् का क्या मत है?
  58. प्रश्न- किस प्रकार का व्यक्ति किसी से घृणा नहीं करता? .
  59. प्रश्न- ईश्वर के ज्ञाता व्यक्ति की स्थिति बतलाइए।
  60. प्रश्न- विद्या एवं अविद्या में क्या अन्तर है?
  61. प्रश्न- विद्या एवं अविद्या (ज्ञान एवं कर्म) को समझने का परिणाम क्या है?
  62. प्रश्न- सम्भूति एवं असम्भूति क्या है? इसका परिणाम बताइए।
  63. प्रश्न- साधक परमेश्वर से उसकी प्राप्ति के लिए क्या प्रार्थना करता है?
  64. प्रश्न- ईशावास्योपनिषद् का वर्ण्य विषय क्या है?
  65. प्रश्न- भारतीय दर्शन का अर्थ बताइये व भारतीय दर्शन की सामान्य विशेषतायें बताइये।
  66. प्रश्न- भारतीय दर्शन की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि क्या है तथा भारत के कुछ प्रमुख दार्शनिक सम्प्रदाय कौन-कौन से हैं? भारतीय दर्शन का अर्थ एवं सामान्य विशेषतायें बताइये।
  67. प्रश्न- भारतीय दर्शन की सामान्य विशेषताओं की व्याख्या कीजिये।
  68. प्रश्न- भारतीय दर्शन एवं उसके भेद का परिचय दीजिए।
  69. प्रश्न- चार्वाक दर्शन किसे कहते हैं? चार्वाक दर्शन में प्रमाण पर विचार दीजिए।
  70. प्रश्न- जैन दर्शन का नया विचार प्रस्तुत कीजिए तथा जैन स्याद्वाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  71. प्रश्न- बौद्ध दर्शन से क्या अभिप्राय है? बौद्ध धर्म के साहित्य तथा प्रधान शाखाओं के विषय में बताइये तथा बुद्ध के उपदेशों में चार आर्य सत्य क्या हैं?
  72. प्रश्न- चार्वाक दर्शन का आलोचनात्मक विवरण दीजिए।
  73. प्रश्न- जैन दर्शन का सामान्य स्वरूप बताइए।
  74. प्रश्न- क्या बौद्धदर्शन निराशावादी है?
  75. प्रश्न- भारतीय दर्शन के नास्तिक स्कूलों का परिचय दीजिए।
  76. प्रश्न- विविध दर्शनों के अनुसार सृष्टि के विषय पर प्रकाश डालिए।
  77. प्रश्न- तर्क-प्रधान न्याय दर्शन का विवेचन कीजिए।
  78. प्रश्न- योग दर्शन से क्या अभिप्राय है? पतंजलि ने योग को कितने प्रकार बताये हैं?
  79. प्रश्न- योग दर्शन की व्याख्या कीजिए।
  80. प्रश्न- मीमांसा का क्या अर्थ है? जैमिनी सूत्र क्या है तथा ज्ञान का स्वरूप और उसको प्राप्त करने के साधन बताइए।
  81. प्रश्न- सांख्य दर्शन में ईश्वर पर प्रकाश डालिए।
  82. प्रश्न- षड्दर्शन के नामोल्लेखपूर्वक किसी एक दर्शन का लघु परिचय दीजिए।
  83. प्रश्न- आस्तिक दर्शन के प्रमुख स्कूलों का परिचय दीजिए।
  84. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। श्रीमद्भगवतगीता : द्वितीय अध्याय
  85. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता' द्वितीय अध्याय के अनुसार आत्मा का स्वरूप निर्धारित कीजिए।
  86. प्रश्न- 'श्रीमद्भगवद्गीता' द्वितीय अध्याय के आधार पर कर्म का क्या सिद्धान्त बताया गया है?
  87. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता द्वितीय अध्याय के आधार पर श्रीकृष्ण का चरित्र-चित्रण कीजिए?
  88. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय का सारांश लिखिए।
  89. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता को कितने अध्यायों में बाँटा गया है? इसके नाम लिखिए।
  90. प्रश्न- महर्षि वेदव्यास का परिचय दीजिए।
  91. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता का प्रतिपाद्य विषय लिखिए।
  92. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। तर्कसंग्रह ( आरम्भ से प्रत्यक्ष खण्ड)
  93. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं पदार्थोद्देश निरूपण कीजिए।
  94. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं द्रव्य निरूपण कीजिए।
  95. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं गुण निरूपण कीजिए।
  96. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं प्रत्यक्ष प्रमाण निरूपण कीजिए।
  97. प्रश्न- अन्नम्भट्ट कृत तर्कसंग्रह का सामान्य परिचय दीजिए।
  98. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन एवं उसकी परम्परा का विवेचन कीजिए।
  99. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन के पदार्थों का विवेचन कीजिए।
  100. प्रश्न- न्याय दर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष प्रमाण को समझाइये।
  101. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन के आधार पर 'गुणों' का स्वरूप प्रस्तुत कीजिए।
  102. प्रश्न- न्याय तथा वैशेषिक की सम्मिलित परम्परा का वर्णन कीजिए।
  103. प्रश्न- न्याय-वैशेषिक के प्रकरण ग्रन्थ का विवेचन कीजिए॥
  104. प्रश्न- न्याय दर्शन के अनुसार अनुमान प्रमाण की विवेचना कीजिए।
  105. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। तर्कसंग्रह ( अनुमान से समाप्ति पर्यन्त )
  106. प्रश्न- 'तर्कसंग्रह ' अन्नंभट्ट के अनुसार अनुमान प्रमाण की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  107. प्रश्न- तर्कसंग्रह के अनुसार उपमान प्रमाण क्या है?
  108. प्रश्न- शब्द प्रमाण को आचार्य अन्नम्भट्ट ने किस प्रकार परिभाषित किया है? विस्तृत रूप से समझाइये।

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